धर्म एवं दर्शन >> दो कदम बुध्दत्व की ओर दो कदम बुध्दत्व की ओरश्री रविशंकर जी
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श्री रविशंकर जी के प्रवचनों का संकलन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
तुम से प्रेम कभी अलग नहीं हो ही नहीं सकता, क्यों कि तुम प्रेम ही तो हो।
तुम से आनंद कभी दूर जा ही नहीं सकता, क्यों कि तुम आनंद ही तो हो। तुम
प्रेम हो, तुम शांति तुम संतुष्टि हो।
आभार
भिन्न-भिन्न समय पर मानव चेतना ने नई-नई उड़ाने भरी हैं। आज जबकि मानव
जाति विभिन्न संघर्षों में, अनेक तनावों से भरा जीवन व्यतीत कर रही है,
हमारे बीच दिव्यता की प्रकाश-किरण सद्गुरु ‘श्री श्री रविशंकर
जी’ के रूप में साकार हुई है।
इस पुस्तक में ‘श्री श्री’ के गहन प्रेम, मस्ती और आनन्द की सुवास बहुत ही सहज सरल और रोचक शब्दों से होती हुई हमारे हृदयों को छू लेती है।
इतने गूढ़ ज्ञान को इतने सरल शब्दों में पिरोकर मानवता के समक्ष रखकर गुरुदेव ने हम सब पर असीम कृपा की है। अतः उनके श्री चरणों में हमारा शत्-शत् नमन और आभार।
इस पुस्तक में ‘श्री श्री’ के गहन प्रेम, मस्ती और आनन्द की सुवास बहुत ही सहज सरल और रोचक शब्दों से होती हुई हमारे हृदयों को छू लेती है।
इतने गूढ़ ज्ञान को इतने सरल शब्दों में पिरोकर मानवता के समक्ष रखकर गुरुदेव ने हम सब पर असीम कृपा की है। अतः उनके श्री चरणों में हमारा शत्-शत् नमन और आभार।
नन्द किशोर विग
आत्म ज्ञान
प्रत्येक घटना के पीछे सदा एक दैवी प्रयोजन होता है। उस दैवी इच्छा के
बिना कुछ नहीं घटता। मनुष्य का बड़ा होना, मानव जीवन का खिलना, इन सबके
पीछे दैवी क्रम है। प्रत्यक्ष रुप में किसी भी घटना का जो भी कारण लगता
है, वह उसका वास्तविक कारण नहीं। वास्तविक कारण तो उसमें ईश्वर की लीला
है; चाहे वह अच्छा हो अथवा बुरा; सही हो या गलत।
जब भी हम कहते हैं ‘‘ऐसा नहीं होना चाहिए था’’, हम भूतकाल में चले जाते हैं। सच्चा साधक नकार की भाषा नहीं बोलता। जो भी कुछ हो गया है, चाहे वह हमारे अनुसार अच्छा न भी रहा हो, उसने अच्छाई की महिमा को बढ़ाया है। सच्ची भक्ति और प्रेम में तो भूत, वर्तमान और भविष्य पूर्ण स्वीकार होता है। वर्तमान की पूर्ण स्वीकृति ही वास्तविक भक्ति है। जो भी हो गया या हो रहा है, उसके साथ पूरी सहमति ही आध्यात्म है, भक्ति है।
इसका अर्थ कदापि नहीं कि कोई असली या निठल्ला हो जाए अथवा भविष्य का आयोजन ही न करे। यदि आप दिव्य और सात्विक गुणों से भरे हैं तो आपसे हर कार्य अच्छा व ठीक ही होगा और अगर आप तनाव और नकारात्मक वृत्तियों से ग्रसित हैं तो आपके शुभ विचार भी क्रिया में अशुभ परिणाम में बदल जाते हैं। अतः प्रगति की प्रक्रिया को सहज (निर्बाध) रूप से बहने देने के लिए यह अनिवार्य है कि हमारा मन भांति-भांति की बाधाओं से मुक्त हो।
फिर भी यह बाधाएं आ ही जाएं तो इन्हें रास्ते के पत्थर की तरह नहीं बल्कि प्रगति की सीढ़ी की तरह स्वीकार लेना ही उचित है। फिर नीचे की ओर देखने की न कोई आवश्यकता और न अवसर। नीचे देखा कि गिरे। प्रगति के पथ पर बाधा तो एक अवश्यम्भावी पड़ाव है। ऐसी प्रतीति होते ही बीते कल को स्वीकारना सहज हो जाता है। यदि तुम किसी चित्रकार की कलाकृति में त्रुटियां निकालने लगो कि ‘‘यहाँ ऐसा नहीं, ऐसा होना चाहिए था’ आदि, तो दोषी तो तुम चित्रकार को ही ठहरा रहे हो न ? जैसे यदि नृत्य में दोष निकालते हैं तो नर्तक पर ही दोष आता है। ऐसे ही सृष्टि में अवगुण इंगित करना सृष्टा के अवगुण गिनना है।
जब भी तुम्हें अपूर्णता का भास हो, या पीड़ा और दुविधा की अनुभूति हो, या कोई वस्तु या स्थिति तुम्हें तंग करती हो, जिसके साथ तुम जीना नहीं चाहते, तब तुम कहते हो कि ‘‘यह तो अपूर्ण है, यह तो गलत है, ऐसा तो नहीं होना चाहिए था’’-क्या ‘नहीं होना चाहिए था ?’ जिससे तुम्हें पीड़ा, दुःख दर्द या बेचैनी होती है। यह तो भक्ति नहीं हुई। भक्ति और प्रार्थना में तो जीवन की पूर्णता का ज्ञान व सम्मान जुड़ा हुआ है।
देखो, सत्य सुख-दुःख दोनों से परे हो। परन्तु वह क्षणिक सुख बाद में किसी समस्या को पैदा कर सकता है। जो कुछ भी इस समय दुख देता मालूम होता है, वह बाद में वैसा नहीं रहता। हमें तो सुख-दुःख से परे ‘उसे’ देखना है, जो कभी नहीं बदलता।
तुम में शाश्वत क्या है ? तुम में अपरिवर्तनीय क्या है ? तुम्हारे विचार, संवेदनाएं, भावनाएं बदल रहे हैं; परिस्थितियां और लोग भी बदलते रहते हैं। इस परिवर्तन चक्र में देखो, क्या तुम में कुछ ऐसा है, जो कभी नहीं बदल रहा ?
एक और विचारणीय तथ्य यह है कि तुम्हारा मन एक शीशे के समान है। कोई घटना घटी और यदि उसे तुम पकड़ कर बैठ जाओ कि ‘ऐसा तो नहीं होना चाहिए’ तो फिर बहुत समय तक तुम्हारा मन उसे घसीटता रहता है, और इस घटना की छाप मन पर जमी रहती है। मन तो शीशा है। शीशे के सामने यदि कोई भला व्यक्ति आ जाए तो शीशा उसे देर तक ठहरने के लिए नहीं कहता, और यदि कोई बुरा व्यक्ति आ जाए तो उसे दूर नहीं धकेलता। वह तो केवल उसे प्रतिबिम्बित करता है और जो है, उसे होने देता है। इसी तरह हमारा मन भी जब शीशे के समान सभी घटनाओं का साक्षी बन जाता है, तो ऐसी स्थिति में कर्मों के बन्धन कट जाते हैं, भस्मीभूत हो जाते हैं।
मन को शीशा ही रहना है-बस इसका बोध सदा बना रहे। अब यह बोध कैसे बना रहे ? जब हम घटनाओं की अस्थिरता और क्षणिकता के प्रति जागरूक होने लगें, संसार में हम एक दिन आए हैं और एक दिन चले जाएँगे-उस सत्य के प्रति चेतन होने लगें। यदि यह चेतना नहीं जागती तो हम क्षुद्र में उलझ कर रहे जाते हैं। इधर उधर की छोटी-छोटी बातें हमें अशांत कर देती हैं। किसी का कहा-सुना, किसी घटना का घटित होना या किसी घटना का घटित न होना, अपनी मान-मर्यादा, दूसरों की नजर में मेरा स्थान-ऐसी सब छोटी-मोटी बातें हमें हमारे वास्तविक स्वरूप से अलग किए रखती हैं। ऐसे में हमारा मन एक तालाब की भांति हो जाता है, जिसमें छोटा सा कंकड़ भी उथल-पुथल मचा देता है। इसके लिए तो एक ही उपाय है-सत्य के प्रति जागरूकता तथा उसमें पूरी आस्था। तब तुम्हारी गहराई से उठी शांति और लयबद्धता को कुछ भी विचलित नहीं कर सकेगा।
प्रत्येक वस्तुस्थिति के दो पक्ष होते हैं। एक उज्ज्वल और दूसरा अंधेरा पक्ष। यदि दृष्टि उज्जवल पक्ष पर है तो हम अहोभाव से भर जाते हैं और यदि अंधेरे पक्ष पर हैं तो शिकवा-शिकायत करते हैं और निराश हो जाते हैं। किन्तु हमें इन दोनों पक्षों की अनुभूतियों से ऊपर जाना है और यही है आध्यात्मिक उन्नति।
जीवन में तीन चीजों की उपलब्धि सचमुच कठिन है। पहला यह मनुष्य जीवन। दूसरा, मनुष्य जीवन मिलने के उपरांत आध्यात्म में रूचि और साधना। आप देखते हो कि लाखों लोगों का रूख इस ओर नहीं होता। समाज में कुछ इन-गिने लोगों को ही आध्यात्म और साधना का स्वाद लगता है। और यह स्वाद एक प्रसाद है। ‘उसकी’ अनुकंपा है। अधिकतर लोग तो एक मशीन की तरह जी रहे हैं-बस खाना, पीना और सोना। उन्हें जीवन के वास्तविक मूल्यों का कुछ पता नहीं। ऐसे लोगों के जीवन की कोई सार्थकता नहीं। यह उनका दुर्भाग्य है। ऐसे भाग्यहीन लोगों को जीवन की नश्वरता और परिवर्तनशीलता की भनक तक नहीं पड़ती। हालांकि यही जीवन का सत्य है और इसी से जीवन मूल्यवान है। और तीसरी चीज है किसी संत-सद्गुर का सान्निध्य, जो बहुत मुश्किल से मिलता है। इसके लिए चाहिए प्रतीक्षा। उचित समय पर यह भी हो जाता है, पर तब तक धैर्य असीम धैर्य और प्रतीक्षा की आवश्यकता होती है।
एक बार एक महात्मा ने एक कहानी सुनाई। उनके दो शिष्य थे। उनमें से एक वृद्ध था, उनका बहुत पुराना और पक्का अनुयायी कड़ी साधना करने वाला एक दिन उसने गुरु से पूछा, ‘‘मुझे मोक्ष या बुद्धत्व की प्राप्ति कब होगी ?’’ गुरु बोले, ‘‘अभी तीन जन्म और लगेंगे।’’ यह सुनते ही शिष्य ने कहा, ‘‘मैं बीसवर्षों से कड़ी साधना में लगा हूँ मुझे क्या आप अनाड़ी समझते हैं। बीससाल की साधना के बाद भी तीन जन्म और ! नहीं नहीं !’’ वह इतना क्रोधित और निराश हो गया कि उसने वहीं अपनी माला तोड़ दी, आसन पटक दिया और चला गया। दूसरा अनुयायी एक युवा लड़का था, उसने भी यही प्रश्न किया। गुरु ने उससे कहा, ‘तुम्हें बुद्धत्व प्राप्त करने में इतने जन्म लगेंगे, जितने इस पेड़ के पत्ते हैं।’’ यह सुनते ही वह खुशी से नाचने लगा और बोला, ‘‘वाह, बस इतना ही ! और इस पेड़ के पत्ते तो गिने भी जा सकते हैं। वाह, आखिर तो वह दिन आ ही आएगा।’’ इतनी प्रसन्नता थी उस युवक की, इतना था उसका संतोष धैर्य और स्वीकृति भाव। कहते हैं, वह तभी, वहीं पर बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया।
धैर्य ही बुद्धत्व का मूल मंत्र है अनन्त धैर्य और प्रतीक्षा। परन्तु प्रेम में प्रतीक्षा है तो कठिन। अधिकांश व्यक्ति तो जीवन में प्रतीक्षा निराश होकर ही करते हैं, प्रेम से नहीं कर पाते।
प्रतीक्षा भी दो प्रकार की होती है। एक निराश मन से प्रतीक्षा करना और निराश होते ही जाना। दूसरी है प्रेम में प्रतीक्षा, जिसका हर क्षण उत्साह और उल्लास से भरा रहता है। ऐसी प्रतीक्षा अपने में ही एक उत्सव है, क्योंकि मिलन होते ही प्राप्ति का सुख समाप्त हो जाता है। तुमने देखा, जो है उसमें हमें सुख नहीं मिलता, जो नहीं है, उसमें मन सुख ढूंढता है। उसी दिशा में मन भागता है। हाँ तो प्रतीक्षा अपने में ही एक बहुत बढ़िया साधना है हमारे विकास के लिए। प्रतीक्षा प्रेम की क्षमता और हमारा स्वीकृति भाव बढ़ाती है। अपने भीतर की गहराई को मापने का यह एक सुन्दर पैमाना है।
यह प्रेम-पथ अपने में पूर्ण है और जीवन से जुड़ा हुआ है। ऐसा नहीं कि कुछ नित्य नियम कुछ समय के लिए करके फिर वही अपना मशीनी जीवन जीते रहें और गिला-शिकवा करते रहें कि हमें तो कोई गहरा अनुभव होता ही नहीं।’ ऐसी शिकायतें मुझे कई लोगों से सुनने को मिलती हैं कि उनकी साधना, अर्चना तो ठीक है, परन्तु वह उनके जीवन का एक अटूट अंग नहीं बन पाई और न ही उनके जीवन में कोई बदलाव ही आया है। बस यहीं पर आत्मज्ञान की आवश्यकता है। अभ्यास और वैराग्य आत्म-उन्नति के दो अंग हैं। आत्मज्ञान का यह पक्ष जीवन्त है, अतः जीवन में उठते बैठते चलते-फिरते, सोते जागते, यह अनश्वर सत्य कि ‘मैं आत्मा हूं’ हमारे भीतर सुदृढ़ होता जाता है। इस पथ ने प्रेम ज्ञान कर्म सेवा सबको अपने भीतर समाहित कर लिया है, ताकि विशुद्ध चेतना का झरना सदा बहता रहे।
बुद्धत्व, किसी भी व्याख्या से परे, शिकायत की हदों से पार की अवस्था है-एक अनुभूति है।
जब भी हम कहते हैं ‘‘ऐसा नहीं होना चाहिए था’’, हम भूतकाल में चले जाते हैं। सच्चा साधक नकार की भाषा नहीं बोलता। जो भी कुछ हो गया है, चाहे वह हमारे अनुसार अच्छा न भी रहा हो, उसने अच्छाई की महिमा को बढ़ाया है। सच्ची भक्ति और प्रेम में तो भूत, वर्तमान और भविष्य पूर्ण स्वीकार होता है। वर्तमान की पूर्ण स्वीकृति ही वास्तविक भक्ति है। जो भी हो गया या हो रहा है, उसके साथ पूरी सहमति ही आध्यात्म है, भक्ति है।
इसका अर्थ कदापि नहीं कि कोई असली या निठल्ला हो जाए अथवा भविष्य का आयोजन ही न करे। यदि आप दिव्य और सात्विक गुणों से भरे हैं तो आपसे हर कार्य अच्छा व ठीक ही होगा और अगर आप तनाव और नकारात्मक वृत्तियों से ग्रसित हैं तो आपके शुभ विचार भी क्रिया में अशुभ परिणाम में बदल जाते हैं। अतः प्रगति की प्रक्रिया को सहज (निर्बाध) रूप से बहने देने के लिए यह अनिवार्य है कि हमारा मन भांति-भांति की बाधाओं से मुक्त हो।
फिर भी यह बाधाएं आ ही जाएं तो इन्हें रास्ते के पत्थर की तरह नहीं बल्कि प्रगति की सीढ़ी की तरह स्वीकार लेना ही उचित है। फिर नीचे की ओर देखने की न कोई आवश्यकता और न अवसर। नीचे देखा कि गिरे। प्रगति के पथ पर बाधा तो एक अवश्यम्भावी पड़ाव है। ऐसी प्रतीति होते ही बीते कल को स्वीकारना सहज हो जाता है। यदि तुम किसी चित्रकार की कलाकृति में त्रुटियां निकालने लगो कि ‘‘यहाँ ऐसा नहीं, ऐसा होना चाहिए था’ आदि, तो दोषी तो तुम चित्रकार को ही ठहरा रहे हो न ? जैसे यदि नृत्य में दोष निकालते हैं तो नर्तक पर ही दोष आता है। ऐसे ही सृष्टि में अवगुण इंगित करना सृष्टा के अवगुण गिनना है।
जब भी तुम्हें अपूर्णता का भास हो, या पीड़ा और दुविधा की अनुभूति हो, या कोई वस्तु या स्थिति तुम्हें तंग करती हो, जिसके साथ तुम जीना नहीं चाहते, तब तुम कहते हो कि ‘‘यह तो अपूर्ण है, यह तो गलत है, ऐसा तो नहीं होना चाहिए था’’-क्या ‘नहीं होना चाहिए था ?’ जिससे तुम्हें पीड़ा, दुःख दर्द या बेचैनी होती है। यह तो भक्ति नहीं हुई। भक्ति और प्रार्थना में तो जीवन की पूर्णता का ज्ञान व सम्मान जुड़ा हुआ है।
देखो, सत्य सुख-दुःख दोनों से परे हो। परन्तु वह क्षणिक सुख बाद में किसी समस्या को पैदा कर सकता है। जो कुछ भी इस समय दुख देता मालूम होता है, वह बाद में वैसा नहीं रहता। हमें तो सुख-दुःख से परे ‘उसे’ देखना है, जो कभी नहीं बदलता।
तुम में शाश्वत क्या है ? तुम में अपरिवर्तनीय क्या है ? तुम्हारे विचार, संवेदनाएं, भावनाएं बदल रहे हैं; परिस्थितियां और लोग भी बदलते रहते हैं। इस परिवर्तन चक्र में देखो, क्या तुम में कुछ ऐसा है, जो कभी नहीं बदल रहा ?
एक और विचारणीय तथ्य यह है कि तुम्हारा मन एक शीशे के समान है। कोई घटना घटी और यदि उसे तुम पकड़ कर बैठ जाओ कि ‘ऐसा तो नहीं होना चाहिए’ तो फिर बहुत समय तक तुम्हारा मन उसे घसीटता रहता है, और इस घटना की छाप मन पर जमी रहती है। मन तो शीशा है। शीशे के सामने यदि कोई भला व्यक्ति आ जाए तो शीशा उसे देर तक ठहरने के लिए नहीं कहता, और यदि कोई बुरा व्यक्ति आ जाए तो उसे दूर नहीं धकेलता। वह तो केवल उसे प्रतिबिम्बित करता है और जो है, उसे होने देता है। इसी तरह हमारा मन भी जब शीशे के समान सभी घटनाओं का साक्षी बन जाता है, तो ऐसी स्थिति में कर्मों के बन्धन कट जाते हैं, भस्मीभूत हो जाते हैं।
मन को शीशा ही रहना है-बस इसका बोध सदा बना रहे। अब यह बोध कैसे बना रहे ? जब हम घटनाओं की अस्थिरता और क्षणिकता के प्रति जागरूक होने लगें, संसार में हम एक दिन आए हैं और एक दिन चले जाएँगे-उस सत्य के प्रति चेतन होने लगें। यदि यह चेतना नहीं जागती तो हम क्षुद्र में उलझ कर रहे जाते हैं। इधर उधर की छोटी-छोटी बातें हमें अशांत कर देती हैं। किसी का कहा-सुना, किसी घटना का घटित होना या किसी घटना का घटित न होना, अपनी मान-मर्यादा, दूसरों की नजर में मेरा स्थान-ऐसी सब छोटी-मोटी बातें हमें हमारे वास्तविक स्वरूप से अलग किए रखती हैं। ऐसे में हमारा मन एक तालाब की भांति हो जाता है, जिसमें छोटा सा कंकड़ भी उथल-पुथल मचा देता है। इसके लिए तो एक ही उपाय है-सत्य के प्रति जागरूकता तथा उसमें पूरी आस्था। तब तुम्हारी गहराई से उठी शांति और लयबद्धता को कुछ भी विचलित नहीं कर सकेगा।
प्रत्येक वस्तुस्थिति के दो पक्ष होते हैं। एक उज्ज्वल और दूसरा अंधेरा पक्ष। यदि दृष्टि उज्जवल पक्ष पर है तो हम अहोभाव से भर जाते हैं और यदि अंधेरे पक्ष पर हैं तो शिकवा-शिकायत करते हैं और निराश हो जाते हैं। किन्तु हमें इन दोनों पक्षों की अनुभूतियों से ऊपर जाना है और यही है आध्यात्मिक उन्नति।
जीवन में तीन चीजों की उपलब्धि सचमुच कठिन है। पहला यह मनुष्य जीवन। दूसरा, मनुष्य जीवन मिलने के उपरांत आध्यात्म में रूचि और साधना। आप देखते हो कि लाखों लोगों का रूख इस ओर नहीं होता। समाज में कुछ इन-गिने लोगों को ही आध्यात्म और साधना का स्वाद लगता है। और यह स्वाद एक प्रसाद है। ‘उसकी’ अनुकंपा है। अधिकतर लोग तो एक मशीन की तरह जी रहे हैं-बस खाना, पीना और सोना। उन्हें जीवन के वास्तविक मूल्यों का कुछ पता नहीं। ऐसे लोगों के जीवन की कोई सार्थकता नहीं। यह उनका दुर्भाग्य है। ऐसे भाग्यहीन लोगों को जीवन की नश्वरता और परिवर्तनशीलता की भनक तक नहीं पड़ती। हालांकि यही जीवन का सत्य है और इसी से जीवन मूल्यवान है। और तीसरी चीज है किसी संत-सद्गुर का सान्निध्य, जो बहुत मुश्किल से मिलता है। इसके लिए चाहिए प्रतीक्षा। उचित समय पर यह भी हो जाता है, पर तब तक धैर्य असीम धैर्य और प्रतीक्षा की आवश्यकता होती है।
एक बार एक महात्मा ने एक कहानी सुनाई। उनके दो शिष्य थे। उनमें से एक वृद्ध था, उनका बहुत पुराना और पक्का अनुयायी कड़ी साधना करने वाला एक दिन उसने गुरु से पूछा, ‘‘मुझे मोक्ष या बुद्धत्व की प्राप्ति कब होगी ?’’ गुरु बोले, ‘‘अभी तीन जन्म और लगेंगे।’’ यह सुनते ही शिष्य ने कहा, ‘‘मैं बीसवर्षों से कड़ी साधना में लगा हूँ मुझे क्या आप अनाड़ी समझते हैं। बीससाल की साधना के बाद भी तीन जन्म और ! नहीं नहीं !’’ वह इतना क्रोधित और निराश हो गया कि उसने वहीं अपनी माला तोड़ दी, आसन पटक दिया और चला गया। दूसरा अनुयायी एक युवा लड़का था, उसने भी यही प्रश्न किया। गुरु ने उससे कहा, ‘तुम्हें बुद्धत्व प्राप्त करने में इतने जन्म लगेंगे, जितने इस पेड़ के पत्ते हैं।’’ यह सुनते ही वह खुशी से नाचने लगा और बोला, ‘‘वाह, बस इतना ही ! और इस पेड़ के पत्ते तो गिने भी जा सकते हैं। वाह, आखिर तो वह दिन आ ही आएगा।’’ इतनी प्रसन्नता थी उस युवक की, इतना था उसका संतोष धैर्य और स्वीकृति भाव। कहते हैं, वह तभी, वहीं पर बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया।
धैर्य ही बुद्धत्व का मूल मंत्र है अनन्त धैर्य और प्रतीक्षा। परन्तु प्रेम में प्रतीक्षा है तो कठिन। अधिकांश व्यक्ति तो जीवन में प्रतीक्षा निराश होकर ही करते हैं, प्रेम से नहीं कर पाते।
प्रतीक्षा भी दो प्रकार की होती है। एक निराश मन से प्रतीक्षा करना और निराश होते ही जाना। दूसरी है प्रेम में प्रतीक्षा, जिसका हर क्षण उत्साह और उल्लास से भरा रहता है। ऐसी प्रतीक्षा अपने में ही एक उत्सव है, क्योंकि मिलन होते ही प्राप्ति का सुख समाप्त हो जाता है। तुमने देखा, जो है उसमें हमें सुख नहीं मिलता, जो नहीं है, उसमें मन सुख ढूंढता है। उसी दिशा में मन भागता है। हाँ तो प्रतीक्षा अपने में ही एक बहुत बढ़िया साधना है हमारे विकास के लिए। प्रतीक्षा प्रेम की क्षमता और हमारा स्वीकृति भाव बढ़ाती है। अपने भीतर की गहराई को मापने का यह एक सुन्दर पैमाना है।
यह प्रेम-पथ अपने में पूर्ण है और जीवन से जुड़ा हुआ है। ऐसा नहीं कि कुछ नित्य नियम कुछ समय के लिए करके फिर वही अपना मशीनी जीवन जीते रहें और गिला-शिकवा करते रहें कि हमें तो कोई गहरा अनुभव होता ही नहीं।’ ऐसी शिकायतें मुझे कई लोगों से सुनने को मिलती हैं कि उनकी साधना, अर्चना तो ठीक है, परन्तु वह उनके जीवन का एक अटूट अंग नहीं बन पाई और न ही उनके जीवन में कोई बदलाव ही आया है। बस यहीं पर आत्मज्ञान की आवश्यकता है। अभ्यास और वैराग्य आत्म-उन्नति के दो अंग हैं। आत्मज्ञान का यह पक्ष जीवन्त है, अतः जीवन में उठते बैठते चलते-फिरते, सोते जागते, यह अनश्वर सत्य कि ‘मैं आत्मा हूं’ हमारे भीतर सुदृढ़ होता जाता है। इस पथ ने प्रेम ज्ञान कर्म सेवा सबको अपने भीतर समाहित कर लिया है, ताकि विशुद्ध चेतना का झरना सदा बहता रहे।
बुद्धत्व, किसी भी व्याख्या से परे, शिकायत की हदों से पार की अवस्था है-एक अनुभूति है।
प्रकृति और विकृति
समस्त संसार प्रेम से बना है। प्रत्येक व्यक्ति भी प्रेम से बना है। तुमने
सुना होगा, ‘सभी कुछ परमात्मा है, सभी कुछ प्रेम है।’
यदि ऐसा
ही है तो फिर जीवन का ध्येय क्या है ? सभी कुछ परमात्मा है, ऐसा मानने से
हम पहुंचते कहाँ हैं ? कहते हैं कि जीवन सम्पूर्णता की ओर बह रहा है,
क्योंकि हम सब पूर्ण होना चाहते हैं। तो क्या जीवन का अस्तित्व प्रेम
स्वरूप ही है, फिर भी प्रकृति के सम्पर्क से इस प्रेम में छः प्रकार की
विकृतियां हैं और वे हैं-क्रोध कामवासना, लोभ, ईर्ष्या, घमण्ड और विभ्रम।
पशुओं में भी ये छः विकृतियां पाई जाती हैं, परन्तु उनके पास इन विकृतियों
से पार जाने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि वे प्रकृति के वश में हैं।
चैतन्य (आत्मा) शुद्ध प्रेम है। पदार्थ विकृति है। परन्तु मनुष्य में
विवेक रूपी गुण भी विद्यमान है ताकि व्यक्ति इन विकृतियों के पार पूर्ण
एवं शुद्ध प्रेम का अनुभव कर सके। साधना और ध्यान का यही लक्ष्य है। साधना
के द्वारा मनुष्य प्रकृति में विद्यमान विकारों से दूर हो अपनी शुद्धता व
अपनी पूर्णता में स्थापित हो सकता है।
परिपूर्णता (शुद्धता) भी तीन प्रकार की है।
एक है कृत्य में, दूसरी वाणी में शुद्धता, और तीसरी भावना में परिपूर्णता। ये तीनों प्रकार की परिपूर्णताएं एक ही व्यक्ति में होनी अत्यन्त दुर्लभ हैं। यह असंभव तो नहीं परन्तु दुर्लभ अवश्य हैं। कुछ लोग कार्यकुशल तो बहुत होते हैं, परन्तु भीतर से क्रोध और क्लेश के भाव से भरे हुए होते हैं। यद्यपि वे बाह्य कार्य तो बहुत बढ़िया करते हैं, परन्तु वे वाणी और भावना के स्तर पर सम्पूर्ण नहीं होते। कुछ लोग बाहर से झूठ आदि भी बोलते हों या उनकी वाणी इतनी शुद्ध न भी हो, परन्तु भीतर के भाव सुन्दर होते हैं। जैसे एक डॉक्टर मरीज को कह देता है कि तुम जल्दी ठीक हो जाओगे’, यद्यपि भीतर से वह जानता है कि मरीज ठीक नहीं भी हो सकता, परन्तु वह मरीज को निगाह में रखकर ऐसा बोलता है। भीतर उसकी भावना शुद्ध है, चाहे बोलने में वह थोड़ा झूठ भी कह रहा है। यह कभी-कभी हम बच्चों से कह देते हैं कि उनके छोटे भाई या बहन तो कोई पक्षी आकाश से आकर उनकी झोली में डाल गया है। यह कथन सत्य नहीं है, परन्तु बच्चे अभी इस सत्य को समझ नहीं पायेंगे, इसलिए उनसे ऐसा कह देते हैं। वाणी तो अशुद्ध है, परन्तु पीछे छिपा भाव शुद्ध और पूर्ण है।
यदि कोई व्यक्ति दुष्भावना से झूठ बोलता है तो उसका असर उसके कार्य पर भी पड़ता है। उसके कार्य में भी दोष आ जाएगा। तुम समझ रहे हो न ? इसे ऐसे समझें कि कोई व्यक्ति गलती करता है और तुम उसकी गलती के कारण क्रोधित हो उठते हो, तो तुम भी गलती करने वाले व्यक्ति की श्रेणी में आ गए। तुम उससे कोई बेहतर नहीं रहे। क्योंकि उसके अपूर्ण कृत्य के कारण तुम्हारी भावनाएं भी अशुद्ध और त्रुटिपूर्ण हो गईं और तुम भी अपूर्ण हो गए।
कर्म कभी भी परिपूर्ण नहीं हो सकता। उसमें कहीं न कहीं कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है। किन्तु जब व्यक्ति, वस्तुस्थिति की अपूर्णता अथवा कोई अन्याय; आसपास के घटना चक्र का कोई अभाव तुम्हारे चित्त में कांटे की तरह चुभने लग जाता है तो यह चुभन देर तक बनी रहती है। तुम्हारा मन उद्विग्न और अशांत हो जाता है। तुम अपने अन्तर के केन्द्र में स्थिर नहीं रह जाते और तुम भी अपूर्ण हो जाते हो। होता है कि नहीं ? अब इस चित्तदशा से तुम कुछ भी अच्छे ढंग से न कर पाओगे। अतः जागरुक रहो कि वाह्य घटनाओं की अपूर्णता अथवा कोई भी अन्य कारण तुम्हारे अन्तर की शांति भंग न करे। उसे तो हर हाल में, किसी भी कीमत पर बनाए रखना है। तभी वाणी शुद्ध होगी और वाह्य घटनाओं या कृत्यों की शुद्धि में सुधार हो सकेगा।
साधारणतया हम एक दोष या त्रुटि से दूसरे दोष या त्रुटि की ओर गति कर जाते हैं। जैसे कोई लोभी है और उसके इस विकार के कारण तुम क्रोधित हो उठे। यदि उसके एक दोष के कारण तुममें एक दूसरा दोष उत्पन्न हो जाता है तो तुम उससे भिन्न कैसे रहे ? ऐसा करने में तुम केवल त्रुटियों के स्वाद ही बदल रहे हो। किसी भी विकृति को दूसरी विकृति में बदल देने से तुम पूर्ण नहीं हो जाते। प्रायः ऐसा ही होता है कि व्यक्ति विकृतियों को ही बदलता रहता है-कामवासना क्रोध बन जाती है, क्रोध ईर्ष्या या लोभ या भ्रम का रूप ले लेता है। हम एक अपूर्णता या विकार या दोष से दूसरे विकार में चढ़ते-उतरते रहते हैं।
तुम्हें हर कीमत पर अपने मन को इनसे बचाना है। यदि तुम भिन्न-भिन्न कार्य और उनके दोषों को गहराई में देखो तो तुम पाओगे कि वे कार्य किन्हीं परिस्थियों और नियमों के अन्तर्गत घट रहे हैं-इसीलिए उनके दोष या अपूर्णताओं को अपने भीतर हृदय में मत उतरने दो और क्रोधित मत होवो।
बहुत से लोग जो मानवीय अधिकारों या फिर नारी आन्दोलनों में उनके अधिकारों के लिए लड़ते हैं उन्हें तुम देखो तो पाओगे कि वे लोग अपने भीतर उलझे हुए हैं, उनका मन विक्षिप्त और क्रोधित है। क्रोध कामवासना से श्रेष्ठ नहीं, बल्कि उससे हीन है। ईर्ष्या क्रोध से भी बुरी है। हम दूसरों के कृत्यों में कोई अभिप्रायः देखते हैं उससे हमारा मन मलिन हो जाता है-एक अशुद्धि के स्थान पर दूसरी अशुद्धि आ जाती है, जिससे और भी गड़बड़ हो जाती है। इससे कहीं भी कोई भी सुधार नहीं होता। इन विकारों से हम साधना के द्वारा ही बच सकते हैं। केवल साधना ही हमारा आंतरिक सन्तुलन स्थिर रखने में सहायक हो सकती है। फिर छोटी-छोटी घटनायें अथवा अन्य कारण हमें विचलित नहीं कर सकते।
यह सारा अस्तित्व प्रकृति और उसकी विकृति से मिलकर बना है। प्रकृति का स्वभाव और उसमें होनेवाले विकार। क्रोध हमारा स्वभाव नहीं है, बल्कि यह हमारे स्वभाव के प्रतिकूल है। ऐसे ही ईर्ष्या हमारा स्वभाव न होकर उसके विपरीत आया हुआ विकार है। हम क्यों क्रोध, लोभ, ईर्ष्या और कामवासना को अशुद्धि मानते हैं ? ये सब प्रकृति में हैं-तुम किसी छोटे बच्चे को तंग करो तो वह भी क्रोध में आ जाता है। कामवासना तो सारी प्रकृति में विद्यमान ही हैं-तुम किसी कुत्ते को छेड़ कर देखो तो कैसे वह तुम्हारे ऊपर गुर्राता है, या किसी छोटे बच्चे को तंग करो तो वह भी क्रोध में आ जाता है। कामवासना तो सारी प्रकृति में विद्यमान ही है-इसी से तो सृष्टि का सृजन हुआ है। इच्छाएं और वासनाएं भी प्रकृति का ही भाग हैं। फिर हम उन्हें विकृति या विकार की संज्ञा क्यों देते हैं ? क्यों वे अशुद्ध हैं ? क्योंकि इनके द्वारा हमारी चेतना पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाती।
पाप वही है जिसके कारण हमारी चेतना (आत्मा) की आभा पूर्ण रूप से चमक नहीं पाती। समझ में आ रहा है न ? यदि हम कुछ ऐसा करते हैं, जिससे हमारी आत्मा या हमारा अन्तरंग स्वभाव खिल नहीं पाता या जिससे हमारी सत्य-परायणता फीकी पड़ती है या उसमें कमी आती है उसे हम पाप कहते हैं। पाप तुम्हारा स्वभाव नहीं है। तुम्हारे जन्म का कारण पाप नहीं है। पाप तो केवल कपड़े की सतह पर पड़ी हुई सलवटें हैं-बस उन सलवटों को ठीक तरह से निकाल देना है। उनको सीधा कर देना है। बस।
कामवासना को पाप क्यों कहते हैं ? क्योंकि कामातुर अवस्था में तुम दूसरे व्यक्ति को एक वस्तु की भांति प्रयोग करते हो; तुम उसमें व्याप्त आत्मा (चैतन्य) का आदर नहीं करते। इस तरह तुम दूसरे को अपने मनोरंजन के लिए प्रयोग करते हो। केवल इसी कारण से काम वासना को पाप कहा गया है। प्रेम इसके विपरीत है। प्रेम में समर्पण होता है, तुम दूसरे व्यक्ति में दिव्यता के दर्शन करते हो, उसे अपने से ऊंचा देखते हो। जब तुम एक मूर्ति की पूजा करते हो-मूर्ति तो जड़ पत्थर है, पूजा के द्वारा तुम उसे जड़ पदार्थ से उठाकर चैतन्य बना देते हो। अब वह एक जड़ वस्तु या तस्वीर न रही, बल्कि एक जीवंत वास्तविकता बन गई। तुम्हारी पूजा ने उस पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा कर दी और उसे उठाकर परमात्मा और प्रेम के सिंहासन पर आसीन कर दिया। यह भी संपूर्णता की ओर उठा हुआ एक कदम है।
क्रोध पाप इसलिए है, क्योंकि क्रोध में तुम अपने केन्द्र बिन्दु से हट जाते हो और अपने आत्मस्वरूप को भूल जाते हो। उस समय तुम्हारा ध्यान अपनी असीम दिव्यता की ओर नहीं रहता, तुम बहुत क्षुद्र (दीन हीन) बन जाते हो। इसीलिए क्रोध पाप है। ईर्ष्या भी पाप है, अपराध-भाव भी पाप है। क्यों ? इसलिए कि अपराध भाव में तुम सारे कर्मों का कर्ता आत्मा को नहीं मान रहे। तुम अपने मन को किसी एक घटना के साथ जोड़कर उसे सीमित बना रहे हो। तुम अपने गुणों और विशेषताओं के लिए ईश्वर के प्रति अनुगृहित हो जाओ क्योंकि यह प्रभु का प्रसाद है, तुम्हारा अपना प्रयास नहीं।
जब तुम किसी नाटक में एक खलनायक (बुरे व्यक्ति) का अभिनय करते हो तब उसे बहुत ही सुन्दर ढंग से करते हो-यह जानते हुए कि तुम केवल एक नाटक के पात्र मात्र हो-अपने अभिनय को पूरी ईमानदारी से निभाते हो। उसमें तुम अपनी सच्ची सत्ता को नहीं भूल जाते। संस्कृत भाषा में एक कहावत है-
‘‘दुर्जनम् प्रथमाम् वन्दे स्वजनम् तदारन्तरम्।’’
अर्थात् पहले बुरे व्यक्ति को प्रणाम करो और बाद में अच्छे को। क्योंकि बुरा व्यक्ति अपनी कीमत पर तुम्हें अच्छाई का महत्व बता रहा है। उसके बुरे कृत्य से हमें कुछ सीखने को मिल रहा है।
जेल के किसी अपराधी से केवल उसके अपराध के लिए ही हमें उससे घृणा नहीं करनी है। वह अपराधी भी परमात्मा का ही रूप है। किसी नशीले पदार्थ का सेवन करने वाले से घृणा क्यों ? उसने तो अपने कृत्य से तुम्हें एक जीवन्त सीध दी है। वह तो जीवन में दिया हुआ एक अभिनय मात्र निभा रहा है। जब तुम्हें सत्य के इन आधारभूत नियमों का ज्ञान होता है तो तुम्हारा अन्तर केन्द्र इतना सबल हो जाता है कि संसार की कोई भी घटना उसे हिला नहीं सकती।
परिपूर्णता (शुद्धता) भी तीन प्रकार की है।
एक है कृत्य में, दूसरी वाणी में शुद्धता, और तीसरी भावना में परिपूर्णता। ये तीनों प्रकार की परिपूर्णताएं एक ही व्यक्ति में होनी अत्यन्त दुर्लभ हैं। यह असंभव तो नहीं परन्तु दुर्लभ अवश्य हैं। कुछ लोग कार्यकुशल तो बहुत होते हैं, परन्तु भीतर से क्रोध और क्लेश के भाव से भरे हुए होते हैं। यद्यपि वे बाह्य कार्य तो बहुत बढ़िया करते हैं, परन्तु वे वाणी और भावना के स्तर पर सम्पूर्ण नहीं होते। कुछ लोग बाहर से झूठ आदि भी बोलते हों या उनकी वाणी इतनी शुद्ध न भी हो, परन्तु भीतर के भाव सुन्दर होते हैं। जैसे एक डॉक्टर मरीज को कह देता है कि तुम जल्दी ठीक हो जाओगे’, यद्यपि भीतर से वह जानता है कि मरीज ठीक नहीं भी हो सकता, परन्तु वह मरीज को निगाह में रखकर ऐसा बोलता है। भीतर उसकी भावना शुद्ध है, चाहे बोलने में वह थोड़ा झूठ भी कह रहा है। यह कभी-कभी हम बच्चों से कह देते हैं कि उनके छोटे भाई या बहन तो कोई पक्षी आकाश से आकर उनकी झोली में डाल गया है। यह कथन सत्य नहीं है, परन्तु बच्चे अभी इस सत्य को समझ नहीं पायेंगे, इसलिए उनसे ऐसा कह देते हैं। वाणी तो अशुद्ध है, परन्तु पीछे छिपा भाव शुद्ध और पूर्ण है।
यदि कोई व्यक्ति दुष्भावना से झूठ बोलता है तो उसका असर उसके कार्य पर भी पड़ता है। उसके कार्य में भी दोष आ जाएगा। तुम समझ रहे हो न ? इसे ऐसे समझें कि कोई व्यक्ति गलती करता है और तुम उसकी गलती के कारण क्रोधित हो उठते हो, तो तुम भी गलती करने वाले व्यक्ति की श्रेणी में आ गए। तुम उससे कोई बेहतर नहीं रहे। क्योंकि उसके अपूर्ण कृत्य के कारण तुम्हारी भावनाएं भी अशुद्ध और त्रुटिपूर्ण हो गईं और तुम भी अपूर्ण हो गए।
कर्म कभी भी परिपूर्ण नहीं हो सकता। उसमें कहीं न कहीं कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है। किन्तु जब व्यक्ति, वस्तुस्थिति की अपूर्णता अथवा कोई अन्याय; आसपास के घटना चक्र का कोई अभाव तुम्हारे चित्त में कांटे की तरह चुभने लग जाता है तो यह चुभन देर तक बनी रहती है। तुम्हारा मन उद्विग्न और अशांत हो जाता है। तुम अपने अन्तर के केन्द्र में स्थिर नहीं रह जाते और तुम भी अपूर्ण हो जाते हो। होता है कि नहीं ? अब इस चित्तदशा से तुम कुछ भी अच्छे ढंग से न कर पाओगे। अतः जागरुक रहो कि वाह्य घटनाओं की अपूर्णता अथवा कोई भी अन्य कारण तुम्हारे अन्तर की शांति भंग न करे। उसे तो हर हाल में, किसी भी कीमत पर बनाए रखना है। तभी वाणी शुद्ध होगी और वाह्य घटनाओं या कृत्यों की शुद्धि में सुधार हो सकेगा।
साधारणतया हम एक दोष या त्रुटि से दूसरे दोष या त्रुटि की ओर गति कर जाते हैं। जैसे कोई लोभी है और उसके इस विकार के कारण तुम क्रोधित हो उठे। यदि उसके एक दोष के कारण तुममें एक दूसरा दोष उत्पन्न हो जाता है तो तुम उससे भिन्न कैसे रहे ? ऐसा करने में तुम केवल त्रुटियों के स्वाद ही बदल रहे हो। किसी भी विकृति को दूसरी विकृति में बदल देने से तुम पूर्ण नहीं हो जाते। प्रायः ऐसा ही होता है कि व्यक्ति विकृतियों को ही बदलता रहता है-कामवासना क्रोध बन जाती है, क्रोध ईर्ष्या या लोभ या भ्रम का रूप ले लेता है। हम एक अपूर्णता या विकार या दोष से दूसरे विकार में चढ़ते-उतरते रहते हैं।
तुम्हें हर कीमत पर अपने मन को इनसे बचाना है। यदि तुम भिन्न-भिन्न कार्य और उनके दोषों को गहराई में देखो तो तुम पाओगे कि वे कार्य किन्हीं परिस्थियों और नियमों के अन्तर्गत घट रहे हैं-इसीलिए उनके दोष या अपूर्णताओं को अपने भीतर हृदय में मत उतरने दो और क्रोधित मत होवो।
बहुत से लोग जो मानवीय अधिकारों या फिर नारी आन्दोलनों में उनके अधिकारों के लिए लड़ते हैं उन्हें तुम देखो तो पाओगे कि वे लोग अपने भीतर उलझे हुए हैं, उनका मन विक्षिप्त और क्रोधित है। क्रोध कामवासना से श्रेष्ठ नहीं, बल्कि उससे हीन है। ईर्ष्या क्रोध से भी बुरी है। हम दूसरों के कृत्यों में कोई अभिप्रायः देखते हैं उससे हमारा मन मलिन हो जाता है-एक अशुद्धि के स्थान पर दूसरी अशुद्धि आ जाती है, जिससे और भी गड़बड़ हो जाती है। इससे कहीं भी कोई भी सुधार नहीं होता। इन विकारों से हम साधना के द्वारा ही बच सकते हैं। केवल साधना ही हमारा आंतरिक सन्तुलन स्थिर रखने में सहायक हो सकती है। फिर छोटी-छोटी घटनायें अथवा अन्य कारण हमें विचलित नहीं कर सकते।
यह सारा अस्तित्व प्रकृति और उसकी विकृति से मिलकर बना है। प्रकृति का स्वभाव और उसमें होनेवाले विकार। क्रोध हमारा स्वभाव नहीं है, बल्कि यह हमारे स्वभाव के प्रतिकूल है। ऐसे ही ईर्ष्या हमारा स्वभाव न होकर उसके विपरीत आया हुआ विकार है। हम क्यों क्रोध, लोभ, ईर्ष्या और कामवासना को अशुद्धि मानते हैं ? ये सब प्रकृति में हैं-तुम किसी छोटे बच्चे को तंग करो तो वह भी क्रोध में आ जाता है। कामवासना तो सारी प्रकृति में विद्यमान ही हैं-तुम किसी कुत्ते को छेड़ कर देखो तो कैसे वह तुम्हारे ऊपर गुर्राता है, या किसी छोटे बच्चे को तंग करो तो वह भी क्रोध में आ जाता है। कामवासना तो सारी प्रकृति में विद्यमान ही है-इसी से तो सृष्टि का सृजन हुआ है। इच्छाएं और वासनाएं भी प्रकृति का ही भाग हैं। फिर हम उन्हें विकृति या विकार की संज्ञा क्यों देते हैं ? क्यों वे अशुद्ध हैं ? क्योंकि इनके द्वारा हमारी चेतना पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाती।
पाप वही है जिसके कारण हमारी चेतना (आत्मा) की आभा पूर्ण रूप से चमक नहीं पाती। समझ में आ रहा है न ? यदि हम कुछ ऐसा करते हैं, जिससे हमारी आत्मा या हमारा अन्तरंग स्वभाव खिल नहीं पाता या जिससे हमारी सत्य-परायणता फीकी पड़ती है या उसमें कमी आती है उसे हम पाप कहते हैं। पाप तुम्हारा स्वभाव नहीं है। तुम्हारे जन्म का कारण पाप नहीं है। पाप तो केवल कपड़े की सतह पर पड़ी हुई सलवटें हैं-बस उन सलवटों को ठीक तरह से निकाल देना है। उनको सीधा कर देना है। बस।
कामवासना को पाप क्यों कहते हैं ? क्योंकि कामातुर अवस्था में तुम दूसरे व्यक्ति को एक वस्तु की भांति प्रयोग करते हो; तुम उसमें व्याप्त आत्मा (चैतन्य) का आदर नहीं करते। इस तरह तुम दूसरे को अपने मनोरंजन के लिए प्रयोग करते हो। केवल इसी कारण से काम वासना को पाप कहा गया है। प्रेम इसके विपरीत है। प्रेम में समर्पण होता है, तुम दूसरे व्यक्ति में दिव्यता के दर्शन करते हो, उसे अपने से ऊंचा देखते हो। जब तुम एक मूर्ति की पूजा करते हो-मूर्ति तो जड़ पत्थर है, पूजा के द्वारा तुम उसे जड़ पदार्थ से उठाकर चैतन्य बना देते हो। अब वह एक जड़ वस्तु या तस्वीर न रही, बल्कि एक जीवंत वास्तविकता बन गई। तुम्हारी पूजा ने उस पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा कर दी और उसे उठाकर परमात्मा और प्रेम के सिंहासन पर आसीन कर दिया। यह भी संपूर्णता की ओर उठा हुआ एक कदम है।
क्रोध पाप इसलिए है, क्योंकि क्रोध में तुम अपने केन्द्र बिन्दु से हट जाते हो और अपने आत्मस्वरूप को भूल जाते हो। उस समय तुम्हारा ध्यान अपनी असीम दिव्यता की ओर नहीं रहता, तुम बहुत क्षुद्र (दीन हीन) बन जाते हो। इसीलिए क्रोध पाप है। ईर्ष्या भी पाप है, अपराध-भाव भी पाप है। क्यों ? इसलिए कि अपराध भाव में तुम सारे कर्मों का कर्ता आत्मा को नहीं मान रहे। तुम अपने मन को किसी एक घटना के साथ जोड़कर उसे सीमित बना रहे हो। तुम अपने गुणों और विशेषताओं के लिए ईश्वर के प्रति अनुगृहित हो जाओ क्योंकि यह प्रभु का प्रसाद है, तुम्हारा अपना प्रयास नहीं।
जब तुम किसी नाटक में एक खलनायक (बुरे व्यक्ति) का अभिनय करते हो तब उसे बहुत ही सुन्दर ढंग से करते हो-यह जानते हुए कि तुम केवल एक नाटक के पात्र मात्र हो-अपने अभिनय को पूरी ईमानदारी से निभाते हो। उसमें तुम अपनी सच्ची सत्ता को नहीं भूल जाते। संस्कृत भाषा में एक कहावत है-
‘‘दुर्जनम् प्रथमाम् वन्दे स्वजनम् तदारन्तरम्।’’
अर्थात् पहले बुरे व्यक्ति को प्रणाम करो और बाद में अच्छे को। क्योंकि बुरा व्यक्ति अपनी कीमत पर तुम्हें अच्छाई का महत्व बता रहा है। उसके बुरे कृत्य से हमें कुछ सीखने को मिल रहा है।
जेल के किसी अपराधी से केवल उसके अपराध के लिए ही हमें उससे घृणा नहीं करनी है। वह अपराधी भी परमात्मा का ही रूप है। किसी नशीले पदार्थ का सेवन करने वाले से घृणा क्यों ? उसने तो अपने कृत्य से तुम्हें एक जीवन्त सीध दी है। वह तो जीवन में दिया हुआ एक अभिनय मात्र निभा रहा है। जब तुम्हें सत्य के इन आधारभूत नियमों का ज्ञान होता है तो तुम्हारा अन्तर केन्द्र इतना सबल हो जाता है कि संसार की कोई भी घटना उसे हिला नहीं सकती।
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